जगदलपुर। विश्व प्रसिद्ध बस्तर दशहरा उत्सव की प्रमुख रस्म मावली परघाव मंगलवार देर रात दंतेश्वरी मंदिर प्रांगण में परंपरागत विधि-विधान के साथ पूरी हुई। दो देवियों के मिलन का यह अनोखा आयोजन इस बार बारिश की रुकावट के बावजूद बेहद भव्य रूप में संपन्न हुआ।

शक्तिपीठ दंतेवाड़ा से माता मावली की डोली और छत्र परंपरा अनुसार जगदलपुर लाए गए। यहां बस्तर राजपरिवार के सदस्यों और हजारों श्रद्धालुओं ने आतिशबाजी और पुष्पवर्षा के बीच देवी का स्वागत किया।
नवरात्र की नवमी को होने वाली यह रस्म लगभग छह शताब्दियों से लगातार निभाई जा रही है। कहा जाता है कि इसकी शुरुआत बस्तर के महाराजा रूद्र प्रताप सिंह के काल में हुई थी। मावली देवी मूलतः कर्नाटक के मलवल्य गांव की मानी जाती हैं, जिन्हें छिंदक नागवंशीय शासक बस्तर लाए थे। बाद में चालुक्य राजा अन्नम देव ने उन्हें कुलदेवी का दर्जा दिया और तभी से मावली परघाव की परंपरा आरंभ हुई।
इस दिन राजपरिवार, राजगुरु और पुजारी नंगे पांव राजमहल से मंदिर प्रांगण पहुंचकर माता की डोली का स्वागत करते हैं और दशहरे के समापन पर उन्हें सम्मानपूर्वक विदा किया जाता है।